8th Marh 2021,Swami Dayanand Saraswati

Swami Dayanand Saraswati jayanti

 

जन्ममूलशंकर
12 फ़रवरी 1824
टंकारागुजरात
मृत्युअजमेरराजस्थान
गुरु/शिक्षकविरजानन्द दण्डीश
दर्शनवेदों की ओर चलो, आधुनिक भारतीय दर्शन
खिताब/सम्मानभारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रणेता
धर्महिन्दू
दर्शनवेदों की ओर चलो, आधुनिक भारतीय दर्शन
राष्ट्रीयताभारतीय

महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिन्तन त्रैकालिक, सार्वभैमिक एवं सार्वदेशिक होता है और युग-युगों तक समाज का पथदर्शन करता है। स्वामी दयानंद सरस्वती हमारे समाज एवं राष्ट्र के ऐसे ही एक प्रकाश स्तंभ हैं, जिन्होंने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि राष्ट्रक्रांति के भी वे प्रेरक बने। जिस युग में उन्होंने जन्म लिया उस समय देशी-विदेशी प्रभाव से भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी और उसका पतन आरंभ हो गया था। उन्होंने भयाक्रांत, आडम्बरों में जकड़ी और धर्म से विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और सांस्कृतिक एकता से संबल प्रदान किया। वे उन महान संतों-महापुरुषों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया। वे आधुनिक भारत के महान् चिन्तक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी धर्मगुरु व देशभक्त थे। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामीजी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा।


 प्रारम्भिक जीवन

दयानन्द सरस्वती का जन्म १२ फ़रवरी टंकारा में सन् १८२४ में मोरवी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था।[2] उनके पिता का नाम कर्षनलाल जी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानन्द सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (१९वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े।

अन्तिम शब्द

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर सन् १८८३ में दीपावली के दिन पंचतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे - "प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।"

महर्षि के साहित्य के साथ-साथ उनका जीवन चरित भी अत्यन्त परेरणास्पद है। महर्षि पर अनेकों व्यक्तियों ने जीवन चरित्र लिखा, जिनमें पण्डित लेखराम, सत्यानन्द आदि प्रमुख हैं। किन्तु बंगाली सज्जन बाबू श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के द्वारा लिखे गए ऋषि दयानन्द का जीवनचरित की यह विशेषता है कि देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी स्वयं आर्यसमाजी नहीं थे फिर भी अत्यन्त श्रद्धावान होकर उन्होनें 15-16 वर्ष लगातार और सहस्रों रुपया व्यय करके ऋषि जीवन की सामग्री को एकत्र करके उन्होने महर्षि की प्रामाणिक और क्रमबद्ध जीवनी को लिखा। इस जीवनी के लेखन का कार्य दैवयोग से पूर्ण नहीं हो पाया तथा देवेन्द्रनाथ जी की असामायिक मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् पं. लेखराम और सत्यानन्द द्वारा संग्रहित सामग्री की सहायता से पं. घासीराम ने इसे पूर्ण किया। यह महर्षि की अत्यन्त प्रमाणिक जीवनी है।

पण्डित लेखराम का अनुसंधान विशेषकर पंजाब, यू.पी. और राजस्थान तक ही सीमित रहा। मुम्बई और बंगाल प्रान्त में न उन्होने अधिक भ्रमण किया और न अधिक अनुसन्धान किया, अत: इन दोनो प्रान्तों की घटनाओं का उनके ग्रन्थ में उतना विशद वर्णन नहीं है जितना पंजाब और यूपी तथा राजस्थान की घटनाओं का है। देवेन्द्रनाथ जी के ग्रन्थ में मुम्बई और बंगाल का भी विस्तृत वर्णन है।

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।

श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।

सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।

पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।

फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।

अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।

स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द "

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता" माना।

अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शंकराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।

सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"

वीर सावरकर ने कहा महर्षि दयानन्द संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे |

लाला लाजपत राय ने कहा - स्वामी दयानन्द ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया। 




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